Sunday, October 9, 2011
भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी)
भक्त अमर नत मुकुट सु-मणियों, की सु-प्रभा का जो भासक।
सकल वाङ्मय तत्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी।
स्तुति को तैयार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ि के लाज।
हे जिन! चंद्रकांत से बढ़कर, तव गुण विपुल अमल अति श्वेत।
वह मैं हूँ कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार।
अल्पुत हूँ श्रृतवानों से, हास्य कराने का ही धाम।
जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजन के पाप।
मैं मति-हीन-दीन प्रभु तेरी, शुरू करूँ स्तुति अघ-हान।
दूर रहे स्रोत आपका, जो कि सर्वथा है निर्दोष।
त्रिभुवन तिलक जगत्पति हे प्रभु! सद्गुरुओं के हे गुरुवर्य्य।
हे अमिनेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम पवित्र।
जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह।
कहाँ आपका मुख अतिसुंदर, सुर-नर उरग नेत्र-हारी।
तब गुण पूर्ण-शशांक का कांतिमय, कला-कलापों से बढ़ के।
मद की छकी अमर ललनाएँ, प्रभु के मन में तनिक विकार।
धूप न बत्ती तैल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक।
अस्त न होता कभी न जिसको, ग्रस पाता है राहु प्रबल।
मोह महातम दलने वाला, सदा उदित रहने वाला।
नाथ आपका मुख जब करता, अंधकार का सत्यानाश।
जैसा शोभित होता प्रभु का, स्वपर-प्रकाशक उत्तम ज्ञान।
हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन।
सौ-सौ नारी सौ-सौ सुत को, जनती रहतीं सौ-सौ ठौर।
तुम को परम पुरुष मुनि मानें, विमल वर्ण रवि तमहारी।
तुम्हें आद्य अक्षय अनंत प्रभु, एकानेक तथा योगीश।
ज्ञान पूज्य है, अमर आपका, इसीलिए कहलाते बुद्ध।
तीन लोक के दुःख हरण, करने वाले है तुम्हें नमन।
गुणसमूह एकत्रित होकर, तुझमें यदि पा चुके प्रवेश।
उन्नत तरु अशोक के आति, निर्मल किरणोन्नत वाला।
मणि-मुक्ता किरणों से चित्रित, अद्भुत शोभित सिंहासन।
ढुरते सुंदर चँवर विमल अति, नवल कुंद के पुष्प समान।
चंद्र-प्रभा सम झल्लरियों से, मणि-मुक्तामय अति कमनीय।
ऊँचे स्वर से करने वाली, सर्वदिशाओं में गुंजन।
कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार।
तीन लोक की सुंदरता यदि, मूर्तिमान बनकर आवे।
मोक्ष-स्वर्ग के मोक्ष प्रदर्शक, प्रभुवर तेरे दिव्य-वचन।
जगमगात नख जिसमें शोभें, जैसे नभ में चंद्रकिरण।
धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य।
लोल कपोलों से झरती है, जहाँ निरंतर मद की धार।
क्षत-विक्षत कर दिए गजों के, जिसने उन्नत गंडस्थल।
प्रलय काल की पवन उठाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर।
कंठ कोकिला सा अति काला, क्रोधित हो फण किया विशाल।
जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर।
रण में भालों से वेधित गज, तन से बहता रक्त अपार।
वह समुद्र कि जिसमें होवें, मच्छमगर एवं घड़ियाल
असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोदर पीड़ा भार।
लोह-श्रंखला से जकड़ी है, नख से शिख तक देह समस्त।
वृषभेश्वर के गुण के स्तवन का, करते निशिदिन जो चिंतन।
हे प्रभु! तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य- ललाम।
Friday, September 2, 2011
आलोचना-पाठ
बंदों पाँचों परम-गुरु, चौबीसों जिनराज।
करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरन के काज ॥
करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरन के काज ॥
सुनिए, जिन अरज हमारी, हम दोष किए अति भारी।
तिनकी अब निवृत्ति काज, तुम सरन लही जिनराज ॥
तिनकी अब निवृत्ति काज, तुम सरन लही जिनराज ॥
इक बे ते चउ इंद्री वा, मनरहित सहित जे जीवा।
तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदई ह्वै घात विचारी ॥
तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदई ह्वै घात विचारी ॥
समारंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ।
कृत कारित मोदन करिकै, क्रोधादि चतुष्ट्य धरिकै॥
कृत कारित मोदन करिकै, क्रोधादि चतुष्ट्य धरिकै॥
शत आठ जु इमि भेदन तै, अघ कीने परिछेदन तै।
तिनकी कहुँ कोलौं कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी॥
तिनकी कहुँ कोलौं कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी॥
विपरीत एकांत विनय के, संशय अज्ञान कुनयके।
वश होय घोर अघ कीने, वचतै नहिं जात कहीने॥
वश होय घोर अघ कीने, वचतै नहिं जात कहीने॥
कुगुरुनकी सेवा कीनी, केवल अदयाकरि भीनी।
याविधि मिथ्यात भ्रमायो, चहुँगति मधि दोष उपायो॥
याविधि मिथ्यात भ्रमायो, चहुँगति मधि दोष उपायो॥
हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, पर-वनितासों दृग जोरी।
आरंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥
आरंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥
सपरस रसना घ्राननको, चखु कान विषय-सेवनको।
बहु करम किए मनमाने, कछु न्याय-अन्याय न जाने॥
बहु करम किए मनमाने, कछु न्याय-अन्याय न जाने॥
फल पंच उदंबर खाये, मधु मांस मद्य चित्त चाये।
नहिं अष्ट मूलगुण धारे, विषयन सेये दुखकारे॥
नहिं अष्ट मूलगुण धारे, विषयन सेये दुखकारे॥
दुइवीस अभख जिन गाये, सो भी निस दिन भुँजाये।
कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों त्यों करि उदर भरायौ॥
कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों त्यों करि उदर भरायौ॥
अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो।
संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश मुनिये॥
संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश मुनिये॥
परिहास अरति रति शोग, भय ग्लानि तिवेद संजोग।
पनवीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम॥
पनवीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम॥
निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई।
फिर जागि विषय-वन भायो, नानाविध विष-फल खायो॥
फिर जागि विषय-वन भायो, नानाविध विष-फल खायो॥
आहार विहार निहारा, इनमें नहिं जतन विचारा।
बिन देखी धरी उठाई, बिन सोधी बसत जु खाई॥
बिन देखी धरी उठाई, बिन सोधी बसत जु खाई॥
तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकल्प उपजायो।
कुछ सुधि बुधि नाहिं रही है, मिथ्या मति छाय गई है॥
कुछ सुधि बुधि नाहिं रही है, मिथ्या मति छाय गई है॥
मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहूँमें दोष जु कीनी।
भिन-भिन अब कैसे कहिये, तुम खानविषै सब पइये॥
भिन-भिन अब कैसे कहिये, तुम खानविषै सब पइये॥
हा हा! मैं दुठ अपराधी, त्रस-जीवन-राशि विराधी।
थावर की जतन ना कीनी, उरमें करुना नहिं लीनी॥
थावर की जतन ना कीनी, उरमें करुना नहिं लीनी॥
पृथ्वी बहु खोद कराई, महलादिक जागाँ चिनाई।
पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातै पवन बिलोल्यो॥
पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातै पवन बिलोल्यो॥
हा हा! मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी।
तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा॥
तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा॥
हा हा! मैं परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई।
ता मधि जे जीव जु आये, ते हूँ परलोक सिधाये॥
ता मधि जे जीव जु आये, ते हूँ परलोक सिधाये॥
बींध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन सोधि जलायो।
झाडू ले जागाँ बुहारी, चिवंटा आदिक जीव बिदारी॥
जल छानी जिवानी कीनी, सो हू पुनि डार जु दीनी।
नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया विन पाप उपाई॥
नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया विन पाप उपाई॥
जल मल मोरिन गिरवायौ, कृमि-कुल बहु घात करायौ।
नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये॥
नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये॥
अन्नादिक शोध कराई, तामे जु जीव निसराई।
तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया॥
तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया॥
पुनि द्रव्य कमावन काजै, बहु आरंभ हिंसा साजै।
किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी॥
किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी॥
इत्यादिक पाप अनंता, हम कीने भगवंता।
संतति चिरकाल उपाई, बानी तैं कहिय न जाई॥
संतति चिरकाल उपाई, बानी तैं कहिय न जाई॥
ताको जु उदय अब आयो, नानाविधि मोहि सतायो।
फल भुँजत जिय दु:ख पावै, वचतै कैसे करि गावै॥
फल भुँजत जिय दु:ख पावै, वचतै कैसे करि गावै॥
तुम जानत केवलज्ञानी, दु:ख दूर करो शिवथानी।
हम तो तुम शरण लही है, जिन तारन विरद सही है॥
हम तो तुम शरण लही है, जिन तारन विरद सही है॥
जो गाँवपति इक होवै, सो भी दुखिया दु:ख खोवै।
तुम तीन भुवन के स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी॥
तुम तीन भुवन के स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी॥
द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीताप्रति कमल रचायो।
अंजन से किये अकामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी।
अंजन से किये अकामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी।
मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद निम्हारो।
सब दोषरहित करि स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी॥
सब दोषरहित करि स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी॥
इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ।
रागादिक दोष हरीजै, परमातम निज-पद दीजै॥
रागादिक दोष हरीजै, परमातम निज-पद दीजै॥
दोषरहित जिन देवजी, निजपद दीज्यो मोय।
सब जीवन को सुख बढ़ै, आनंद मंगल होय॥
सब जीवन को सुख बढ़ै, आनंद मंगल होय॥
अनुभव मानिक पारखी, ‘जौहरि’ आप जिनंद।
यही वर मोहि दीजिए, चरण-सरण आनंद ॥
यही वर मोहि दीजिए, चरण-सरण आनंद ॥
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