Friday, September 2, 2011

दिख़ावा

मंज़िल पै फूल लेके, बहुत लोग खड़े थे ।
पर किसी के पांव में, छाले नहीं देखे ।।

आलोचना-पाठ


बंदों पाँचों परम-गुरु, चौबीसों जिनराज।
करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरन के काज ॥
सुनिए, जिन अरज हमारी, हम दोष किए अति भारी।
तिनकी अब निवृत्ति काज, तुम सरन लही जिनराज ॥
इक बे ते चउ इंद्री वा, मनरहित सहित जे जीवा।
तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदई ह्वै घात विचारी ॥
समारंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ।
कृत कारित मोदन करिकै, क्रोधादि चतुष्ट्‌य धरिकै॥
शत आठ जु इमि भेदन तै, अघ कीने परिछेदन तै।
तिनकी कहुँ कोलौं कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी॥
विपरीत एकांत विनय के, संशय अज्ञान कुनयके।
वश होय घोर अघ कीने, वचतै नहिं जात कहीने॥
कुगुरुनकी सेवा कीनी, केवल अदयाकरि भीनी।
याविधि मिथ्यात भ्रमायो, चहुँगति मधि दोष उपायो॥
हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, पर-वनितासों दृग जोरी।
आरंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥
सपरस रसना घ्राननको, चखु कान विषय-सेवनको।
बहु करम किए मनमाने, कछु न्याय-अन्याय न जाने॥
फल पंच उदंबर खाये, मधु मांस मद्य चित्त चाये।
नहिं अष्ट मूलगुण धारे, विषयन सेये दुखकारे॥
दुइवीस अभख जिन गाये, सो भी निस दिन भुँजाये।
कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों त्यों करि उदर भरायौ॥
अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो।
संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश मुनिये॥
परिहास अरति रति शोग, भय ग्लानि तिवेद संजोग।
पनवीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम॥
निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई।
फिर जागि विषय-वन भायो, नानाविध विष-फल खायो॥
आहार विहार निहारा, इनमें नहिं जतन विचारा।
बिन देखी धरी उठाई, बिन सोधी बसत जु खाई॥
तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकल्प उपजायो।
कुछ सुधि बुधि नाहिं रही है, मिथ्या मति छाय गई है॥
मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहूँमें दोष जु कीनी।
भिन-भिन अब कैसे कहिये, तुम खानविषै सब पइये॥
हा हा! मैं दुठ अपराधी, त्रस-जीवन-राशि विराधी।
थावर की जतन ना कीनी, उरमें करुना नहिं लीनी॥
पृथ्वी बहु खोद कराई, महलादिक जागाँ चिनाई।
पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातै पवन बिलोल्यो॥
हा हा! मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी।
तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा॥
हा हा! मैं परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई।
ता मधि जे जीव जु आये, ते हूँ परलोक सिधाये॥
बींध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन सोधि जलायो।
झाडू ले जागाँ बुहारी, चिवंटा आदिक जीव बिदारी॥
जल छानी जिवानी कीनी, सो हू पुनि डार जु दीनी।
नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया विन पाप उपाई॥
जल मल मोरिन गिरवायौ, कृमि-कुल बहु घात करायौ।
नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये॥
अन्नादिक शोध कराई, तामे जु जीव निसराई।
तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया॥
पुनि द्रव्य कमावन काजै, बहु आरंभ हिंसा साजै।
किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी॥
इत्यादिक पाप अनंता, हम कीने भगवंता।
संतति चिरकाल उपाई, बानी तैं कहिय न जाई॥
ताको जु उदय अब आयो, नानाविधि मोहि सतायो।
फल भुँजत जिय दु:ख पावै, वचतै कैसे करि गावै॥
तुम जानत केवलज्ञानी, दु:ख दूर करो शिवथानी।
हम तो तुम शरण लही है, जिन तारन विरद सही है॥
जो गाँवपति इक होवै, सो भी दुखिया दु:ख खोवै।
तुम तीन भुवन के स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी॥
द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीताप्रति कमल रचायो।
अंजन से किये अकामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी।
मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद निम्हारो।
सब दोषरहित करि स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी॥
इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ।
रागादिक दोष हरीजै, परमातम निज-पद दीजै॥
दोषरहित जिन देवजी, निजपद दीज्यो मोय।
सब जीवन को सुख बढ़ै, आनंद मंगल होय॥
अनुभव मानिक पारखी, ‘जौहरि’ आप जिनंद।
यही वर मोहि दीजिए, चरण-सरण आनंद ॥

Thursday, May 19, 2011

Wednesday, April 20, 2011

समाधि भावना


दिन रात मेरे स्वामी, मैं भावना ये भाऊँ,
देहांत के समय में, तुमको न भूल जाऊँ । टेक।
शत्रु अगर कोई हो, संतुष्ट उनको कर दूँ,
समता का भाव धर कर, सबसे क्षमा कराऊँ ।१।
त्यागूँ आहार पानी, औषध विचार अवसर,
टूटे नियम न कोई, दृढ़ता हृदय में लाऊँ ।२।
जागें नहीं कषाएँ, नहीं वेदना सतावे,
तुमसे ही लौ लगी हो,दुर्ध्यान को भगाऊँ ।३।
आत्म स्वरूप अथवा, आराधना विचारूँ,
अरहंत सिद्ध साधूँ, रटना यही लगाऊँ ।४।
धरमात्मा निकट हों, चर्चा धरम सुनावें,
वे सावधान रक्खें, गाफिल न होने पाऊँ ।५।
जीने की हो न वाँछा, मरने की हो न ख्वाहिश,
परिवार मित्र जन से, मैं मोह को हटाऊँ ।६।
भोगे जो भोग पहिले, उनका न होवे सुमिरन,
मैं राज्य संपदा या, पद इंद्र का न चाहूँ ।७।
रत्नत्रय का पालन, हो अंत में समाधि,
‘शिवराम’ प्रार्थना यह, जीवन सफल बनाऊँ ।८।

पार्श्वनाथ स्तवन


तुम से लागी लगन, ले लो अपनी शरण, पारस प्यारा,
मेटो मेटो जी संकट हमारा।
निशदिन तुमको जपूँ, पर से नेह तजूँ, जीवन सारा,
तेरे चाणों में बीत हमारा ॥टेक॥
अश्वसेन के राजदुलारे, वामा देवी के सुत प्राण प्यारे।
सबसे नेह तोड़ा, जग से मुँह को मोड़ा, संयम धारा ॥मेटो॥
इंद्र और धरणेन्द्र भी आए, देवी पद्मावती मंगल गाए।
आशा पूरो सदा, दुःख नहीं पावे कदा, सेवक थारा ॥मेटो॥
जग के दुःख की तो परवाह नहीं है, स्वर्ग सुख की भी चाह नहीं है।
मेटो जामन मरण, होवे ऐसा यतन, पारस प्यारा ॥मेटो॥
लाखों बार तुम्हें शीश नवाऊँ, जग के नाथ तुम्हें कैसे पाऊँ ।
पंकज व्याकुल भया दर्शन बिन ये जिया लागे खारा ॥मेटो॥

नवकार मंत्र ही महामंत्र


नवकार मंत्र ही महामंत्र, निज पद का ज्ञान कराता है।
निज जपो शुद्ध मन बच तन से, मनवांछित फल का दाता है॥1॥ नवकार…
पहला पद श्री अरिहंताणां, यह आतम ज्योति जगाता है।
यह समोसरण की रचना की भव्यों को याद दिलाता है॥2॥ नवकार…
दूजा पद श्री सिद्धाणं है, यह आतम शक्ति बढ़ाता है।
इससे मन होता है निर्मल, अनुभव का ज्ञान कराता है॥3॥ नवकार…
तीजा पद श्री आयरियाणां, दीक्षा में भाव जगाता है।
दुःख से छुटकारा शीघ्र मिले, जिनमत का ज्ञान बढ़ाता है॥4॥ नवकार…
चौथा पद श्री उवज्ज्ञायणं, यह जैन धर्म चमकता है।
कर्मास्त्रव को ढीला करता, यह सम्यक्‌ ज्ञान कराता है॥5॥ नवकार…
पंचमपद श्री सव्वसाहूणं, यह जैन तत्व सिखलाता है।
दिलवाता है ऊँचा पद, संकट से शीघ्र बचाता है॥6॥ नवकार…
तुम जपो भविक जन महामंत्र, अनुपम वैराग्य बढ़ाता है।
नित श्रद्धामन से जपने से, मन को अतिशांत बनाता है॥7॥ नवकार…
संपूर्ण रोग को शीघ्र हरे, जो मंत्र रुचि से ध्याता है।
जो भव्य सीख नित ग्रहण करे, वो जामन मरण मिटाता है॥8॥ नवकार…

जिनेन्द्र प्रार्थना


जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र बोलिए।
जय जिनेन्द्र की ध्वनि से, अपना मौन खोलिए॥
सुर असुर जिनेन्द्र की महिमा को नहीं गा सके।
और गौतम स्वामी न महिमा को पार पा सके॥
जय जिनेन्द्र बोलकर जिनेन्द्र शक्ति तौलिए।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, बोलिए॥
जय जिनेन्द्र ही हमारा एक मात्र मंत्र हो
जय जिनेन्द्र बोलने को हर मनुष्य स्वतंत्र हो॥
जय जिनेन्द्र बोल-बोल खुद जिनेन्द्र हो लिए।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र बोलिए॥
पाप छोड़ धर्म छोड़ ये जिनेन्द्र देशना।
अष्ट कर्म को मरोड़ ये जिनेन्द्र देशना॥
जाग, जाग, जग चेतन बहुकाल सो लिए।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र बोलिए॥
है जिनेन्द्र ज्ञान दो, मोक्ष का वरदान दो।
कर रहे प्रार्थना, प्रार्थना पर ध्यान दो॥
जय जिनेन्द्र बोलकर हृदय के द्वार खोलिए।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र बोलिए॥
जय जिनेन्द्र की ध्वनि से अपना मौन खोलिए॥
मुक्तक
द्वार है सब एक दस्तक भिन्न है।
भाव है सब एक मस्तक भिन्न है।
जिंदगी स्कूल है ऐसी जहाँ-
पाठ है सब एक पुस्तक भिन्न है।