Sunday, February 5, 2012

देव शास्त्र गुरु पूजा


केवल रवि किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अंतर 
उस श्री जिनवाणी में होता, तत्त्वों का सुंदरतम दर्शन 
सद्दर्शन बोध चरण पथ पर, अविरल जो बड़ते हैं मुनि गण 
उन देव परम आगम गुरु को , शत शत वंदन शत शत वंदन

इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यामयी कंचन काया 
यह सब कुछ जड़ की क्रीडा है , मैं अब तक जान नहीं पाया 
मैं भूल स्वयं के वैभव को , पर ममता में अटकाया हूँ 
अब निर्मल सम्यक नीर लिए , मिथ्या मल धोने आया हूँ

जड़ चेतन की सब परिणति प्रभु, अपने अपने में होती है 
अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है 
प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बड़ाया है 
संतप्त हृदय प्रभु चंदन सम, शीतलता पाने आया है

उज्ज्वल हूँ कंठ धवल हूँ प्रभु, पर से न लगा हूँ किंचित भी 
फिर भी अनुकूल लगें उन पर, करता अभिमान निरंतर ही 
जड़ पर झुक झुक जाता चेतन, की मार्दव की खंडित काया 
निज शाश्वत अक्षत निधि पाने, अब दास चरण रज में आया

यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नही 
निज अंतर का प्रभु भेद काहूँ, औस में ऋजुता का लेश नही 
चिन्तन कुछ फिर संभाषण कुछ, वृत्ति कुछ की कुछ होती है 
स्थिरता निज में प्रभु पाऊं जो, अंतर का कालुश धोती है

अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु भूख न मेरी शांत हुई 
तृष्णा की खाई खूब भारी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही 
युग युग से इच्छा सागर में, प्रभु ! गोते खाता आया हूँ 
चरणों में व्यंजन अर्पित कर, अनुपम रस पीने आया हूँ

मरे चैत्यन्य सदन में प्रभु! चिर व्याप्त भयंकर अँधियारा 
श्रुत दीप बूझा है करुनानिधि, बीती नही कष्टों की कारा 
अतएव प्रभो! यह ज्ञान प्रतीक, समर्पित करने आया हूँ 
तेरी अंतर लौ से निज अंतर, दीप जलाने आया हूँ।

जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी 
में रागी द्वेषी हो लेता, जब परिणति होती है जड़ की 
यों भाव करम या भाव मरण, सदिओं से करता आया हूँ 
निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर गंध जलाने आया हूँ

जग में जिसको निज कहता में, वह छोड मुझे चल देता है 
में आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है 
में शांत निराकुल चेतन हूँ, है मुक्तिरमा सहचर मेरी 
यह मोह तड़क कर टूट पड़े, प्रभु सार्थक फल पूजा तेरी

क्षण भर निज रस को पी चेतन, मिथ्यमल को धो देता है 
कशायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द अमृत पीता है 
अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है 
दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह है अर्हन्त अवस्था है 
यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु, निज गुण का अर्घ्य बनाऊंगा 
और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अर्हन्त अवस्था पाउंगा

जयमाला

भव वन में जी भर घूम चुका, कण कण को जी भर भर देखा। 
मृग सम मृग तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सच की रखा।

झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाएं । 
तन जीवन यौवन अस्थिर है, क्षण भंगुर पल में मुरझाएं ।

सम्राट महाबल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या। 
अशरण मृत काया में हरषित, निज जीवन दल सकेगा क्या।

संसार महा दुख सागर के, प्रभु दुखमय सच आभसोन में। 
मुझको न मिला सच क्षणभर भी, कंचन कामिनी प्रासदोन में।

में एकाकी एकत्वा लिये, एकत्वा लिये सब है आते। 
तन धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड चले जाते।

मेरे न हुए ये में इनसे, अति भिन्ना अखंड निराला हूँ। 
निज में पर से अन्यत्वा लिये, निज समरस पीने वाला हूँ।

जिसके श्रिन्गारोन में मेरा, यह महंगा जीवन घुल जाता। 
अत्यन्ता अशुचि जड़ काया से, ईस चेतन का कैसा नाता।

दिन रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता। 
मानस वाणी और काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता।

शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्तल। 
शीतल समकित किरण फूटें, सँवर से जाग अन्तर्बल।

फिर तप की शोधक वन्हि जगे, कर्मों की कड़ियाँ फूट पड़ें । 
सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें

हम छोड चलें यह लोक तभी, लोकान्त विराजें क्षण में जा। 
निज लोक हमारा वासा हो, शोकान्त बनें फिर हमको क्या।

जागे मम दुर्लभ बोधी प्रभो, दुर्नैतम सत्वर तल जावे। 
बस ज्ञाता दृष्टा रह जाऊं, मद मत्सर मोह विनश जावे।

चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी। 
जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी।

चरणों में आया हूँ प्रभुवर, शीतलता मुझको मिल जावे। 
मुरझाई ज्ञानलता मेरी, निज अन्तर्बल से खिल जावे।

सोचा करता हूँ भोगों से, बूझ जावेगी इच्छा ज्वाला। 
परिणाम निकलता है लेकिन, मानो पावक में घी डाला।

तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय सुख को ही अभिलाषा। 
अब तक न समझ है पाया प्रभु, सच्चे सुख की भी परिभाषा।

तुम तो अविकारी हो प्रभुवर, जग में रहते जग से न्यारे। 
अतएव झुक तव चरणों में, जग के माणिक मोती सारे।

स्याद्वाद मयी तेरी वाणी, शुभ नय के झरने झरते हैं । 
और उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भाव वारिधि तिरते हैं।

हे गुरुवर शाश्वत सुख दर्शक, यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है। 
जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन करने वाला है।

जब जग विषयों में रच पच कर, गाफिल निद्रा में सोता हो। 
अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विष्कन्तक बोटा हो।

हो अर्ध निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों। 
तब शांत निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिन्तन करते हो।

करते तप शैल नदी तट पर, तरुतल वर्षा की झाड़ियों में। 
समता रस पान किया करते, सुख दुख दोनों की घडियों में।

अन्तर्ज्वाला हरती वाणी, मानों झरती हों फुल्झदियाँ । 
भाव बंधन तड तड टूट पड़ें , खिल जावें अंतर की कलियां।

तुम सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दी जग की निधियां। 
दिन रात लुटाया करते हो, सम शम की अविनश्वर मणियाँ।

हे निर्मल देव तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञानदीप आगम प्रणाम। 
हे शांति त्याग के मूर्तिमान, शिव पथ पंथी गुरुवर प्रणाम।

Monday, December 5, 2011

ज़रूरत - ख़्वाइश

ज़रूरत के मुताबिक ज़िंदगी जिओ, ख़्वाइशों के मुताबिक नहीं;
क्योंकि ज़रूरत तो फ़कीर की भी पूरी हो जाती है और ख़्वाइश बादशाहों की भी पूरी नहीं होती ।

Saturday, October 29, 2011

मिथ्यातम नाश वे को



मिथ्यातम नाश वे को, ज्ञान के प्रकाश वे को,
आपा पर भास वे को, भानु सी बखानी है॥
छहों द्रव्य जान वे को, बन्ध विधि मान वे को,
स्व-पर पिछान वे को, परम प्रमानी है॥
अनुभव बताए वे को, जीव के जताए वे को,
काहूँ न सताय वे को, भव्य उर आनी है॥
जहाँ तहाँ तार वे को, पार के उतार वे को,
सुख विस्तार वे को यही जिनवाणी है॥
जिनवाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,
सो वाणी मस्तक धरों, सदा देत हूँ धोक॥
है जिनवाणी भारती, तोहि जपूँ दिन चैन,
जो तेरी शरण गहैं, सो पावे सुख-चैन॥

निर्वाण कांड



वीतराग वंदौं सदा, भावसहित सिरनाय।
कहुँ कांड निर्वाण की भाषा सुगम बनाय॥

अष्टापद आदीश्वर स्वामी, बासु पूज्य चंपापुरनामी।
नेमिनाथस्वामी गिरनार वंदो, भाव भगति उरधार ॥१॥

चरम तीर्थंकर चरम शरीर, पावापुरी स्वामी महावीर।
शिखर सम्मेद जिनेसुर बीस, भाव सहित वंदौं निशदीस ॥२॥

वरदतराय रूइंद मुनिंद, सायरदत्त आदिगुणवृंद।
नगरतारवर मुनि उठकोडि, वंदौ भाव सहित करजोड़ि ॥३॥

श्री गिरनार शिखर विख्यात, कोडि बहत्तर अरू सौ सात।
संबु प्रदुम्न कुमार द्वै भाय, अनिरुद्ध आदि नमूं तसु पाय ॥४॥

रामचंद्र के सुत द्वै वीर, लाडनरिंद आदि गुण धीर।
पाँचकोड़ि मुनि मुक्ति मंझार, पावागिरि बंदौ निरधार ॥५॥

पांडव तीन द्रविड़ राजान आठकोड़ि मुनि मुक्तिपयान।
श्री शत्रुंजय गिरि के सीस, भाव सहित वंदौ निशदीस ॥६॥

जे बलभद्र मुक्ति में गए, आठकोड़ि मुनि औरहु भये।
श्री गजपंथ शिखर सुविशाल, तिनके चरण नमूं तिहूँ काल ॥७॥

राम हणू सुग्रीव सुडील, गवगवाख्य नीलमहानील।
कोड़ि निण्यान्वे मुक्ति पयान, तुंगीगिरी वंदौ धरिध्यान ॥८॥

नंग अनंग कुमार सुजान, पाँच कोड़ि अरू अर्ध प्रमान।
मुक्ति गए सोनागिरि शीश, ते वंदौ त्रिभुवनपति इस ॥९॥

रावण के सुत आदिकुमार, मुक्ति गए रेवातट सार।
कोड़ि पंच अरू लाख पचास ते वंदौ धरि परम हुलास। ।१०॥

रेवा नदी सिद्धवरकूट, पश्चिम दिशा देह जहाँ छूट।
द्वै चक्री दश कामकुमार, उठकोड़ि वंदौं भवपार। ।११॥

बड़वानी बड़नयर सुचंग, दक्षिण दिशि गिरिचूल उतंग।
इंद्रजीत अरू कुंभ जु कर्ण, ते वंदौ भवसागर तर्ण। ।१२॥

सुवरण भद्र आदि मुनि चार, पावागिरिवर शिखर मंझार।
चेलना नदी तीर के पास, मुक्ति गयैं बंदौं नित तास। ॥१३॥

फलहोड़ी बड़ग्राम अनूप, पश्चिम दिशा द्रोणगिरि रूप।
गुरु दत्तादि मुनिसर जहाँ, मुक्ति गए बंदौं नित तहाँ। ।१४॥

बाली महाबाली मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय।
श्री अष्टापद मुक्ति मंझार, ते बंदौं नितसुरत संभार। ।१५॥

अचलापुर की दशा ईसान, जहाँ मेंढ़गिरि नाम प्रधान।
साड़े तीन कोड़ि मुनिराय, तिनके चरण नमूँ चितलाय। ।१६॥

वंशस्थल वन के ढिग होय, पश्चिम दिशा कुन्थुगिरि सोय।
कुलभूषण दिशिभूषण नाम, तिनके चरणनि करूँ प्रणाम। ।१७॥

जशरथराजा के सुत कहे, देश कलिंग पाँच सो लहे।
कोटिशिला मुनिकोटि प्रमान, वंदन करूँ जौर जुगपान। ।१८॥

समवसरण श्री पार्श्वजिनेंद्र, रेसिंदीगिरि नयनानंद।
वरदत्तादि पंच ऋषिराज, ते वंदौ नित धरम जिहाज। ।१९॥

सेठ सुदर्शन पटना जान, मथुरा से जम्बू निर्वाण।
चरम केवलि पंचमकाल, ते वंदौं नित दीनदयाल। ॥२०॥

तीन लोक के तीरथ जहाँ, नित प्रति वंदन कीजे तहाँ।
मनवचकाय सहित सिरनाय, वंदन करहिं भविक गुणगाय। ॥२१॥

संवत्‌ सतरहसो इकताल, आश्विन सुदी दशमी सुविशाल।
‘भैया’ वंदन करहिं त्रिकाल, जय निर्वाण कांड गुणमाल। ॥२२॥

जितनी भक्ति जगाएं ह्रदय में


जितनी  भक्ति  जगाएं  ह्रदय  में  , 
उतना  मन  का  अँधेरा  मिटेगा 

हम  रखें  सीख  मन  में गुरु  की ,
मुक्ति का  पथ  सहज  ही  मिलेगा   

(जितनी  भक्ति ..)

सब  किया  पर  आतम को  जाना , 
भव  भवों  में  भटकता  दीवाना 
कर्म  का  भोज  बढता  ही  जाए 
जब  उदय  आये  जी  भर  रुलाये 
भेद  ज्ञानी  जब  तक  बने  हम 
जन्म  मृत्यु  का  चक्कर  चलेगा 

(हम  रखें  सीख ...)
(जितनी  भक्ति ...)

ज़िन्दगी की  यही  है  कहानी 
घट  रहा  अंजुली  का  जो  पानी 
चेतने  का  समय   गया  है 
जो  जगा  भोर  को  पा  गया  है 
मोह  की  नींद  त्यागे  बिना  रे 
राग  की  सेज  से  कब  उठेगा 

(हम  रखें  सीख ...)
(जितनी भक्ति ...)

संत  तारण  तरण  कुल  मिला  है 
वीतरागी  गुरु  का  सिला  है 
फिर  भी  डूबे  अगर  भव  सफीना 
जान  ये  तर  सकेगा  कभी  
ढूँढ  ले  अपना  आतम  खज़ाना 
जो  अमर  है  कभी   लूटेगा 

(हम  रखें  सीख ...)
(जितनी  भक्ति ...)