Friday, October 26, 2012

मेरी भावना


जिसने राग द्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया
सब जीवोको मोक्षमार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया
बुध्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रम्हा, या उसको स्वाधीन कहो
भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो ||1||

विषयो की आशा नहि जिनके साम्य भाव धन रखते हैं
निज परके हित-साधन में जो निश दिन तत्पर रहते हैं
स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं
ऐसे ज्ञानी साधू जगत के दुःख समूह को हारते हैं ||2||

रहे सदा सत्संग उन्ही का ध्यान उन्ही का नित्य रहे हैं
उन्ही जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे हैं
नहीं सताऊ किसी जीव को झूठ कभी नहीं कहा करू
परधन वनिता पर न लुभाऊ, संतोशामृत पीया करू ||3||

अहंकार का भाव न रखु नहीं किसी पर क्रोध करू
देख दुसरो की बढती को कभी न इर्ष्या भाव धरु
रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यव्हार करू
बने जहा तक जीवन में, औरो का उपकार करू||4||

मंत्री भाव जगत में मेरा सब जीवो से नित्य रहे
दींन दुखी जीवो पर मेरे उर से करुना – स्रोत बहे
दुर्जन क्रूर कुमार्ग रतो पर क्षोभ नहीं मुझको आवे
साम्यभाव रखु में उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ||5||

गुनी जनों को देख ह्रदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे
बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे
होऊ नहीं क्रुत्ग्न कभी में द्रोह न मेरे उर आवे
गुण ग्रहण का भाव रहे नित दृस्थी न दोषों पर जावे ||6||

कोई बुरा कहो या अच्छा लक्ष्मी आवे या जावे
अनेक वर्षो तक जीउ या मृत्यु आज ही आ जावे
अथवा कोई ऐसा ही भय या लालच देने आवे
तो भी न्याय मार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे ||7||

होकर सुख में मग्न न दुले दुःख में कभी न घबरावे
पर्वत नदी श्मशान भयानक अटवी से नहीं भय खावे
रहे अडोल अकंप निरंतर यह मन दृद्तर बन जावे
इस्ट वियोग अनिस्ठ योग में सहन- शीलता दिखलावे ||8||

सुखी रहे सब जीव जगत के कोई कभी न घबरावे
बैर पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नए मंगल गावे
घर घर चर्चा रहे धर्मं की दुष्कृत दुस्खर हो जावे
ज्ञान चरित उन्नत कर अपना मनुज जन्म फल सब पावे ||9||

इति भीती व्यापे नहीं जग में वृस्ती समय पर हुआ करे
धर्मनिस्ट होकर राजा भी न्याय प्रजा का किया करे
रोग मरी दुर्भिक्स न फैले प्रजा शांति से जिया करे
परम अहिंसा धर्म जगत में फ़ैल सर्व हित किया करे ||10||

फैले प्रेम परस्पर जगत में मोह दूर हो राह करे
अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे
बनकर सब “युगवीर” ह्रदय से देशोंनती रत रहा करें
वस्तु स्वरुप विचार खुशी से सब संकट सहा करे ||11||

मंगलाचरण

चत्तारी मंगलं-अर्हंत मंगलं ,
सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं,
केवली पण्णत्तो धम्मो मंगलं 

चत्तारी लोगुत्तमा-अर्हंता लोगुत्तमा.
सिद्ध लोगुत्तमा ,
साहू लोगुत्तमा ,
केवली पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा

चत्तारी सरणं पवज्जामि – अर्हंत सरणं पवज्जामि ,
सिद्ध सरणं पवज्जामि ,
साहू सरणं पवज्जामि
केवली पण्णत्तो धम्मो सरणं पवज्जामि

Thursday, June 21, 2012

जय जिनेन्द्र


जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र बोलिए।
जय जिनेन्द्र की ध्वनि से, अपना मौन खोलिए॥
सुर असुर जिनेन्द्र की महिमा को नहीं गा सके।
और गौतम स्वामी न महिमा को पार पा सके॥
जय जिनेन्द्र बोलकर जिनेन्द्र शक्ति तौलिए।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, बोलिए॥
जय जिनेन्द्र ही हमारा एक मात्र मंत्र हो
जय जिनेन्द्र बोलने को हर मनुष्य स्वतंत्र हो॥
जय जिनेन्द्र बोल-बोल खुद जिनेन्द्र हो लिए।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र बोलिए॥
पाप छोड़ धर्म छोड़ ये जिनेन्द्र देशना।
अष्ट कर्म को मरोड़ ये जिनेन्द्र देशना॥
जाग, जाग, जग चेतन बहुकाल सो लिए।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र बोलिए॥
है जिनेन्द्र ज्ञान दो, मोक्ष का वरदान दो।
कर रहे प्रार्थना, प्रार्थना पर ध्यान दो॥
जय जिनेन्द्र बोलकर हृदय के द्वार खोलिए।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र, जय जिनेन्द्र बोलिए॥
जय जिनेन्द्र की ध्वनि से अपना मौन खोलिए॥

सबसे बड़ा

जो मानता स्वंय को सबसे बड़ा है,
वह धर्म से अभी बहुत दूर खड़ा है ।


आचार्य श्री विद्यासागर जी

Thursday, April 26, 2012

जिन घड़ियों में हँस सकते हैं

कल का दिन किसने देखा है , आज का दिन हम खोयें क्यों ।
जिन घड़ियों में हँस सकते हैं , उन घड़ियों में रोयें क्यों ।।

Sunday, March 25, 2012

महावीर वंदना


जो मोह माया मान मत्सर, मदन मर्दन वीर हैं।
जो विपुल विघ्नों बीच में भी, ध्यान धारणा धीर हैं॥

जो तरण-तारण, भव-निवारण, भव-जलधि के तीर हैं।
वे वंदनीय जिनेश, तीर्थंकर स्वयं महावीर हैं॥

जो राग-द्वेष विकार वर्जित, लीन आतम ध्यान में।
जिनके विराट विशाल निर्मल, अचल केवल ज्ञान में॥

युगपद विशद सकलार्थ झलकें, ध्वनित हों व्याख्यान में।
वे वर्द्धमान महान जिन, विचरें हमारे ध्यान में॥

जिनका परम पावन चरित, जलनिधि समान अपार है।
जिनके गुणों के कथन में, गणधर न पावैं पार है॥

बस वीतरागी-विज्ञान ही, जिनके कथन का सार है।
उन सर्वदर्शी सन्मति को, वंदना शत बार है॥

जिनके विमल उपदेश में, सबके उदय की बात है।
समभाव समताभाव जिनका, जगत में विख्यात है॥

जिसने बताया जगत को, प्रत्येक कण स्वाधीन है।
कर्ता न धर्ता कोई है, अणु-अणु स्वयं में लीन है॥

आतम बने परमात्मा, हो शांति सारे देश में।
है देशना-सर्वोदयी, महावीर के संदेश में॥

प्रभु पतितपावन


प्रभु पतितपावन मैं अपावन, चरण; आयो शरण जी |
यो विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरण जी |1| 

तुम ना पिछान्या अन्य मान्या, देव विविध प्रकार जी |
या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी |2|

भव विकट वन में करम बैरी, ज्ञानधन मेरो हरयो |
सब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट गति धरतो फिरयो |3| 

धन्य घड़ी यो, धन्य दिवस यो ही, धन्य जनम मेरो भयो |
अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरश प्रभु को लख लयो |4| 

छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दृष्टि नासा पै धरैं |
वसु प्रातिहार्य अनन्त गुण युत, कोटि रवि छवि को हरैं |5| 

मिट गयो तिमिर मिथ्यात्व मेरो, उदय  रवि आतम भयो |
मो उर हर्ष ऐसो भयो, मनो रंक चिंतामणि लयो |6| 

मैं हाथ जोड़ नवाऊं मस्तक, वीनऊं तुव चरणजी |
सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनहु तारण तरण जी |7|

जाचूं नहीं सुर-वास पुनि, नर-राज परिजन साथ जी |
‘बुध’ जाचहूं तुव भक्ति भव भव, दीजिए शिवनाथ जी |8|