Wednesday, April 20, 2011

बारह भावना


भव वन में जी भर घूम चुका, कण, कण को जी भर देखा।
मृग सम मृग तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा।
अनित्य
झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाएँ।
तन-यौवन-जीवन-अस्थिर है, क्षण भंगुर पल में मुरझाए।
अशरण
सम्राट महा-बल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या।
अशरण मृत काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या।
संसार
संसार महा दुःख सागर के, प्रभु दु:ख मय सुख-आभासों में।
मुझको न मिला सुख क्षण भर भी कंचन-कामिनी-प्रासादों में।
एकत्व
मैं एकाकी एकत्व लिए, एकत्व लिए सबहि आते।
तन-धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड़ चले जाते।
अन्यत्व
मेरे न हुए ये मैं इनसे, अति भिन्न अखंड निराला हूँ।
निज में पर से अन्यत्व लिए, निज सम रस पीने वाला हूँ।
अशुचि
जिसके श्रंगारों में मेरा, यह महँगा जीवन घुल जाता। 
अत्यंत अशुचि जड़ काया से, इस चेतन का कैसा नाता।
आव
दिन-रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता।
मानस वाणी और काया से, आव का द्वार खुला रहता।
सँवर
शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अंतस्तल।
शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से आगे अंतर्बल।
निर्जरा
फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें।
सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें।
लोक
हम छोड़ चलें यह लोक तभी, लोकांत विराजें क्षण में जा।
निज लोग हमारा वासा हो, शोकांत बनें फिर हमको क्या।
बोधि दुर्लभ
जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो! दुर्नयतम सत्वर टल जावे।
बस ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ, मद-मत्सर मोह विनश जावे।
धर्म
चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी।
जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी।

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