Saturday, October 29, 2011

मिथ्यातम नाश वे को



मिथ्यातम नाश वे को, ज्ञान के प्रकाश वे को,
आपा पर भास वे को, भानु सी बखानी है॥
छहों द्रव्य जान वे को, बन्ध विधि मान वे को,
स्व-पर पिछान वे को, परम प्रमानी है॥
अनुभव बताए वे को, जीव के जताए वे को,
काहूँ न सताय वे को, भव्य उर आनी है॥
जहाँ तहाँ तार वे को, पार के उतार वे को,
सुख विस्तार वे को यही जिनवाणी है॥
जिनवाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,
सो वाणी मस्तक धरों, सदा देत हूँ धोक॥
है जिनवाणी भारती, तोहि जपूँ दिन चैन,
जो तेरी शरण गहैं, सो पावे सुख-चैन॥

निर्वाण कांड



वीतराग वंदौं सदा, भावसहित सिरनाय।
कहुँ कांड निर्वाण की भाषा सुगम बनाय॥

अष्टापद आदीश्वर स्वामी, बासु पूज्य चंपापुरनामी।
नेमिनाथस्वामी गिरनार वंदो, भाव भगति उरधार ॥१॥

चरम तीर्थंकर चरम शरीर, पावापुरी स्वामी महावीर।
शिखर सम्मेद जिनेसुर बीस, भाव सहित वंदौं निशदीस ॥२॥

वरदतराय रूइंद मुनिंद, सायरदत्त आदिगुणवृंद।
नगरतारवर मुनि उठकोडि, वंदौ भाव सहित करजोड़ि ॥३॥

श्री गिरनार शिखर विख्यात, कोडि बहत्तर अरू सौ सात।
संबु प्रदुम्न कुमार द्वै भाय, अनिरुद्ध आदि नमूं तसु पाय ॥४॥

रामचंद्र के सुत द्वै वीर, लाडनरिंद आदि गुण धीर।
पाँचकोड़ि मुनि मुक्ति मंझार, पावागिरि बंदौ निरधार ॥५॥

पांडव तीन द्रविड़ राजान आठकोड़ि मुनि मुक्तिपयान।
श्री शत्रुंजय गिरि के सीस, भाव सहित वंदौ निशदीस ॥६॥

जे बलभद्र मुक्ति में गए, आठकोड़ि मुनि औरहु भये।
श्री गजपंथ शिखर सुविशाल, तिनके चरण नमूं तिहूँ काल ॥७॥

राम हणू सुग्रीव सुडील, गवगवाख्य नीलमहानील।
कोड़ि निण्यान्वे मुक्ति पयान, तुंगीगिरी वंदौ धरिध्यान ॥८॥

नंग अनंग कुमार सुजान, पाँच कोड़ि अरू अर्ध प्रमान।
मुक्ति गए सोनागिरि शीश, ते वंदौ त्रिभुवनपति इस ॥९॥

रावण के सुत आदिकुमार, मुक्ति गए रेवातट सार।
कोड़ि पंच अरू लाख पचास ते वंदौ धरि परम हुलास। ।१०॥

रेवा नदी सिद्धवरकूट, पश्चिम दिशा देह जहाँ छूट।
द्वै चक्री दश कामकुमार, उठकोड़ि वंदौं भवपार। ।११॥

बड़वानी बड़नयर सुचंग, दक्षिण दिशि गिरिचूल उतंग।
इंद्रजीत अरू कुंभ जु कर्ण, ते वंदौ भवसागर तर्ण। ।१२॥

सुवरण भद्र आदि मुनि चार, पावागिरिवर शिखर मंझार।
चेलना नदी तीर के पास, मुक्ति गयैं बंदौं नित तास। ॥१३॥

फलहोड़ी बड़ग्राम अनूप, पश्चिम दिशा द्रोणगिरि रूप।
गुरु दत्तादि मुनिसर जहाँ, मुक्ति गए बंदौं नित तहाँ। ।१४॥

बाली महाबाली मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय।
श्री अष्टापद मुक्ति मंझार, ते बंदौं नितसुरत संभार। ।१५॥

अचलापुर की दशा ईसान, जहाँ मेंढ़गिरि नाम प्रधान।
साड़े तीन कोड़ि मुनिराय, तिनके चरण नमूँ चितलाय। ।१६॥

वंशस्थल वन के ढिग होय, पश्चिम दिशा कुन्थुगिरि सोय।
कुलभूषण दिशिभूषण नाम, तिनके चरणनि करूँ प्रणाम। ।१७॥

जशरथराजा के सुत कहे, देश कलिंग पाँच सो लहे।
कोटिशिला मुनिकोटि प्रमान, वंदन करूँ जौर जुगपान। ।१८॥

समवसरण श्री पार्श्वजिनेंद्र, रेसिंदीगिरि नयनानंद।
वरदत्तादि पंच ऋषिराज, ते वंदौ नित धरम जिहाज। ।१९॥

सेठ सुदर्शन पटना जान, मथुरा से जम्बू निर्वाण।
चरम केवलि पंचमकाल, ते वंदौं नित दीनदयाल। ॥२०॥

तीन लोक के तीरथ जहाँ, नित प्रति वंदन कीजे तहाँ।
मनवचकाय सहित सिरनाय, वंदन करहिं भविक गुणगाय। ॥२१॥

संवत्‌ सतरहसो इकताल, आश्विन सुदी दशमी सुविशाल।
‘भैया’ वंदन करहिं त्रिकाल, जय निर्वाण कांड गुणमाल। ॥२२॥

जितनी भक्ति जगाएं ह्रदय में


जितनी  भक्ति  जगाएं  ह्रदय  में  , 
उतना  मन  का  अँधेरा  मिटेगा 

हम  रखें  सीख  मन  में गुरु  की ,
मुक्ति का  पथ  सहज  ही  मिलेगा   

(जितनी  भक्ति ..)

सब  किया  पर  आतम को  जाना , 
भव  भवों  में  भटकता  दीवाना 
कर्म  का  भोज  बढता  ही  जाए 
जब  उदय  आये  जी  भर  रुलाये 
भेद  ज्ञानी  जब  तक  बने  हम 
जन्म  मृत्यु  का  चक्कर  चलेगा 

(हम  रखें  सीख ...)
(जितनी  भक्ति ...)

ज़िन्दगी की  यही  है  कहानी 
घट  रहा  अंजुली  का  जो  पानी 
चेतने  का  समय   गया  है 
जो  जगा  भोर  को  पा  गया  है 
मोह  की  नींद  त्यागे  बिना  रे 
राग  की  सेज  से  कब  उठेगा 

(हम  रखें  सीख ...)
(जितनी भक्ति ...)

संत  तारण  तरण  कुल  मिला  है 
वीतरागी  गुरु  का  सिला  है 
फिर  भी  डूबे  अगर  भव  सफीना 
जान  ये  तर  सकेगा  कभी  
ढूँढ  ले  अपना  आतम  खज़ाना 
जो  अमर  है  कभी   लूटेगा 

(हम  रखें  सीख ...)
(जितनी  भक्ति ...)

Sunday, October 9, 2011

जिनवाणी स्तुति



हे जीनवाणी माँ,हे जिनवाणी माँ ,अज्ञानता से हमे तार देना ।
मुनियो ने समझी गुणियों ने जानी,शास्त्रो की भाषा आगम की वाणी ।
हम भी तो जाने,हम भी तो समझे,विद्या का फल तो हमे माता तु देना ॥1

तु ज्ञानदायी हमे ज्ञान दे दे ,रत्नत्रयों का हमे दान दे दे ।
मन से हमारे मिटा दे अंधेरा,
हमको उजालो का शिव व्दार देना ॥2

तु मोक्षदायी है संगीत तुझमे,हर शब्द तेरा है हर भाव तुझमे ।
हम है अकेले,हम है अधुरे,तेरी शरण माँ,हमे तार देना ॥3

चले मिल आज प्रभु दर्शन को


चले मिल आज प्रभु दर्शन को ।
छोड जंजाल,सुधारे नरतन को ॥
देखी प्रभु की भव्य मुरतीयाँ ,जागेगी दिल मे,ज्ञान की बत्तियाँ ।
मिटजाये तेरा ,मिथ्यात्व  अंधेरा ।
जायेगी कट तेरी कर्मन रस्सीयाँ ।
कर लो पुनित निज तन मन को ॥चले मिल आज॥1

गायेगा गुण जब दिल तेरा,कट जायेगा भव भव का फेरा ।
पायेगा सुख दुख विनशाये ,हो जायेगा तेरा शिवपुर डेरा ।
प्रभु भी लेगे साथ,हर जन जन को ॥चले मिल आज॥2

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी)


भक्त अमर नत मुकुट सु-मणियों, की सु-प्रभा का जो भासक।
पाप रूप अति सघन तिमिर का, ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक॥
भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलंबन।
उनके चरण-कमल को करते, सम्यक बारम्बार नमन ॥१॥

सकल वाङ्मय तत्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी।
उसी इंद्र की स्तुति से है, वंदित जग-जन मन-हारी॥
अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिनस्वामी की।
जगनामी सुखधामी तद्भव, शिवगामी अभिरामी की ॥२॥

स्तुति को तैयार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ि के लाज।
विज्ञजनों से अर्चित है प्रभु! मंदबुद्धि की रखना लाज॥
जल में पड़े चंद्र मंडल को, बालक बिना कौन मतिमान।
सहसा उसे पकड़ने वाली, प्रबलेच्छा करता गतिमान ॥३॥

हे जिन! चंद्रकांत से बढ़कर, तव गुण विपुल अमल अति श्वेत।
कह न सके नर हे गुण के सागर! सुरगुरु के सम बुद्धि समेत॥
मक्र, नक्र चक्रादि जंतु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार।
कौन भुजाओं से समुद्र के, हो सकता है परले पार ॥४॥

वह मैं हूँ कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार।
करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वापर्य विचार॥
निज शिशु की रक्षार्थ आत्मबल बिना विचारे क्या न मृगी?
जाती है मृगपति के आगे, प्रेम-रंग में हुई रंगी ॥५॥

अल्पुत हूँ श्रृतवानों से, हास्य कराने का ही धाम।
करती है वाचाल मुझे प्रभु, भक्ति आपकी आठों याम॥
करती मधुर गान पिक मधु में, जग जन मन हर अति अभिराम।
उसमें हेतु सरस फल फूलों के, युत हरे-भरे तरु-आम ॥६॥

जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजन के पाप।
पलभर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप॥
सकल लोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त।
प्रातः रवि की उग्र-किरण लख, हो जाता क्षण में प्राणांत ॥७॥

मैं मति-हीन-दीन प्रभु तेरी, शुरू करूँ स्तुति अघ-हान।
प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, संतों का निश्चय से मान॥
जैसे कमल-पत्र पर जल कण, मोती कैसे आभावान।
दिखते हैं फिर छिपते हैं, असली मोती में हैं भगवान ॥८॥

दूर रहे स्रोत आपका, जो कि सर्वथा है निर्दोष।
पुण्य कथा ही किंतु आपकी, हर लेती है कल्मष-कोष॥
प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर।
फेंका करता सूर्य किरण को, आप रहा करता है दूर ॥९॥

त्रिभुवन तिलक जगत्पति हे प्रभु! सद्गुरुओं के हे गुरुवर्य्य।
सद्भक्तों जन को निजसम करते, इसमें नहीं अधिक आश्चर्य।
जन को निजसम करते
नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या? उन धनिकों की करनी से ॥१०॥

हे अमिनेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम पवित्र।
तौषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र॥
चंद्र-किरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान।
कालोदधि का खारा पानी, पीना चाहे कौन पुमान ॥११॥

जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह।
थे उतने वैसे अणु जग में, शांत-रागमय निःसंदेह॥
हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय आभूषण रूप।
इसीलिए तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप ॥१२॥

कहाँ आपका मुख अतिसुंदर, सुर-नर उरग नेत्र-हारी।
जिसने जीत लिए सब-जग के, जितने थे उपमाधारी॥
कहाँ कलंकी बंक चंद्रमा, रंक समान कीट-सा दीन।
जो पलाशसा फीका पड़ता, दिन में हो करके छवि-छीन ॥१३॥

तब गुण पूर्ण-शशांक का कांतिमय, कला-कलापों से बढ़ के।
तीन लोक में व्याप रहे हैं जो कि स्वच्छता में चढ़ के॥
विचरें चाहें जहाँ कि जिनको, जगन्नाथ का एकाधार।
कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार ॥१४॥

मद की छकी अमर ललनाएँ, प्रभु के मन में तनिक विकार।
कर न सकीं आश्चर्य कौनसा, रह जाती है मन को मार॥
गिरि गिर जाते प्रलय पवन से तो फिर क्या वह मेरु शिखर।
हिल सकता है रंचमात्र भी, पाकर झंझावत प्रखर ॥१५॥

धूप न बत्ती तैल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक।
गिरि के शिखर उड़ाने वाली, बुझा न सकती मारुत झोक॥
तिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिन-रात।
ऐसे अनुपम आप दीप हैं, स्वपर-प्रकाशक जग-विख्यात ॥१६॥

अस्त न होता कभी न जिसको, ग्रस पाता है राहु प्रबल।
एक साथ बतलाने वाला, तीन लोक का ज्ञान विमल॥
रुकता कभी न प्रभाव जिसका, बादल की आ करके ओट।
ऐसी गौरव-गरिमा वाले, आप अपूर्व दिवाकर कोट ॥१७॥

मोह महातम दलने वाला, सदा उदित रहने वाला।
राहु न बादल से दबता, पर सदा स्वच्छ रहने वाला॥
विश्व-प्रकाशक मुखसरोज तव, अधिक कांतिमय शांतिस्वरूप।
है अपूर्व जग का शशिमंडल, जगत शिरोमणि शिव का भूप ॥१८॥

नाथ आपका मुख जब करता, अंधकार का सत्यानाश।
तब दिन में रवि और रात्रि में, चंद्र बिंब का विफल प्रयास॥
धान्य-खेत जब धरती तल के, पके हुए हों अति अभिराम।
शोर मचाते जल को लादे, हुए घनों से तब क्या काम? ॥१९॥

जैसा शोभित होता प्रभु का, स्वपर-प्रकाशक उत्तम ज्ञान।
हरिहरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान॥
अति ज्योतिर्मय महारतन का, जो महत्व देखा जाता।
क्या वह किरणाकुलित काँच में, अरे कभी लेखा जाता? ॥२०॥

हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन।
क्योंकि उन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन॥
है परंतु क्या तुम्हें देखने से, हे स्वामिन मुझको लाभ।
जन्म-जन्म में भी न लुभा पाते, कोई यह मम अमिताभ ॥२१॥

सौ-सौ नारी सौ-सौ सुत को, जनती रहतीं सौ-सौ ठौर।
तुमसे सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और?॥
तारागण को सर्व दिशाएँ, धरें नहीं कोई खाली।
पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपति को जनने वाली ॥२२॥

तुम को परम पुरुष मुनि मानें, विमल वर्ण रवि तमहारी।
तुम्हें प्राप्त कर मृत्युंजय के, बन जाते जन अधिकारी॥
तुम्हें छोड़कर अन्य न कोई, शिवपुर पथ बतलाता है।
किंतु विपर्यय मार्ग बताकर, भव-भव में भटकाता है ॥२३॥

तुम्हें आद्य अक्षय अनंत प्रभु, एकानेक तथा योगीश।
ब्रह्मा, ईश्वर या जगदीश्वर, विदित योग मुनिनाथ मुनीश॥
विमल ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश।
इत्यादिक नामों कर मानें, संत निरंतर विभो निधीश ॥२४॥

ज्ञान पूज्य है, अमर आपका, इसीलिए कहलाते बुद्ध।
भुवनत्रय के सुख संवर्द्धक, अतः तुम्हीं शंकर हो शुद्ध॥
मोक्ष-मार्ग के आद्य प्रवर्तक, अतः विधाता कहें गणेश।
तुम सब अवनी पर पुरुषोत्तम, और कौन होगा अखिलेश ॥२५॥

तीन लोक के दुःख हरण, करने वाले है तुम्हें नमन।
भूमंडल के निर्मल-भूषण, आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन॥
हे त्रिभुवन के अखिलेश्वर, हो तुमको बारम्बार नमन।
भव-सागर के शोषक-पोषक, भव्य जनों के तुम्हें नमन ॥२६॥

गुणसमूह एकत्रित होकर, तुझमें यदि पा चुके प्रवेश।
क्या आश्चर्य न मिल पाएँ हों, अन्य आय उन्हें जिनेश॥
देव कहे जाने वालों से, आति होकर गर्वित दोष।
तेरी ओर न झाँक सके वे, स्वप्नमात्र में हे गुण-दोष ॥२७॥

उन्नत तरु अशोक के आति, निर्मल किरणोन्नत वाला।
रूप आपका दिखता सुंदर, तमहर मनहर छवि वाला॥
वितरण किरण निकर तमहारक, दिनकर धन के अधिक समीप।
नीलाचल पर्वत पर होकर, निरांजन करता ले दीप ॥२८॥

मणि-मुक्ता किरणों से चित्रित, अद्भुत शोभित सिंहासन।
कांतिमान्‌ कंचन-सा दिखता, जिस पर तब कमनीय वदन॥
उदयाचल के तुंग शिखर से, मानो सहसरश्मि वाला।
किरण-जाल फैलाकर निकला, हो करने को उजियाला ॥२९॥

ढुरते सुंदर चँवर विमल अति, नवल कुंद के पुष्प समान।
शोभा पाती देह आपकी, रौप्य धवल-सी आभावान॥
कनकाचल के तुंगृंग से, झर-झर झरता है निर्झर।
चंद्र-प्रभा सम उछल रही हो, मानो उसके ही तट पर ॥३०॥

चंद्र-प्रभा सम झल्लरियों से, मणि-मुक्तामय अति कमनीय।
दीप्तिमान्‌ शोभित होते हैं, सिर पर छत्रत्रय भवदीय॥
ऊपर रहकर सूर्य-रश्मि का, रोक रहे हैं प्रखर प्रताप।
मानो अघोषित करते हैं, त्रिभुवन के परमेश्वर आप ॥३१॥

ऊँचे स्वर से करने वाली, सर्वदिशाओं में गुंजन।
करने वाली तीन लोक के, जन-जन का शुभ-सम्मेलन॥
पीट रही है डंका-हो सत्‌ धर्म-राज की जय-जय।
इस प्रकार बज रही गगन में, भेरी तव यश की अक्षय ॥३२॥

कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार।
गंधोदक की मंद वृष्टि, करते हैं प्रभुदित देव उदार॥
तथा साथ ही नभ से बहती, धीमी-धीमी मंद पवन।
पंक्ति बाँध कर बिखर रहे हों, मानो तेरे दिव्य-वचन ॥३३॥

तीन लोक की सुंदरता यदि, मूर्तिमान बनकर आवे।
तन-भामंडल की छवि लखकर, तब सन्मुख शरमा जावे॥
कोटिसूर्य के प्रताप सम, किंतु नहीं कुछ भी आताप।
जिसके द्वारा चंद्र सुशीतल, होता निष्प्रभ अपने आप ॥३४॥

मोक्ष-स्वर्ग के मोक्ष प्रदर्शक, प्रभुवर तेरे दिव्य-वचन।
करा रहे हैं, ‘सत्यधर्म’ के अमर-तत्व का दिग्दर्शन॥
सुनकर जग के जीव वस्तुतः कर लेते अपना उद्धार।
इस प्रकार में परिवर्तित होते, निज-निज भाषा के अनुसार ॥३५॥

जगमगात नख जिसमें शोभें, जैसे नभ में चंद्रकिरण।
विकसित नूतन सरसीरूह सम, है प्रभु! तेरे विमल चरण॥
रखते जहाँ वहीं रचते हैं, स्वर्ग-कमल सुरदिव्य ललाम।
अभिनंदन के योग्य चरण तव, भक्ति रहे उनमें अभिराम ॥३६॥

धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य।
वैसा क्या कुछ अन्य कु देवों, में भी दिखता है सौंदर्य॥
जो छवि घोर-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती।
वैसी ही क्या अतुल कांति, नक्षत्रों में लेखी जाती ॥३७॥

लोल कपोलों से झरती है, जहाँ निरंतर मद की धार।
होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौंरे गुंजार॥
क्रोधासक्त हुआ, यों हाथी, उद्धत ऐरावत सा काल।
देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तव आय तत्काल ॥३८॥

क्षत-विक्षत कर दिए गजों के, जिसने उन्नत गंडस्थल।
कांतिमान्‌ गज-मुक्ताओं से, पाट दिया हो अवनीतल॥
जिन भक्तों को तेरे चरणों, के गिरि की हो उन्नत ओट।
ऐसा सिंह छलाँगे भर कर, क्या उस पर कर सकता चोट ॥३९॥

प्रलय काल की पवन उठाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर।
फिफें फुलिंगे ऊपर तिरछे, अंगारों का भी होवे जोर॥
भुवनत्रय को निगला चाहे, आती हुई अग्नि भभकार।
प्रभु के नाम-मंत्र जल से वह, बुझ जाती है उस ही बार ॥४०॥

कंठ कोकिला सा अति काला, क्रोधित हो फण किया विशाल।
लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटें नाग महा विकराल॥
नाम रूप तव अहि- दमनी का, लिया जिन्होंने हो आय।
पग रखकर निःशंक नाग पर, गमन करें वे नर निर्भय ॥४१॥

जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर।
शूरवीर नृप की सेनाएँ, रव करती हों चारों ओर।
वहाँ अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुंदर तेरा नाम।
सूर्य-तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम-तमाम ॥४२॥

रण में भालों से वेधित गज, तन से बहता रक्त अपार।
वीर लड़ाकू जहाँ आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार॥
भक्त तुम्हारा हो निराश तहँ, लख अरिसेना दुर्जयरूप।
तव पादारविंद पा आय, जय पाता उपहार-स्वरूप ॥४३॥

वह समुद्र कि जिसमें होवें, मच्छमगर एवं घड़ियाल
तूफाँ लेकर उठती होवें, भयकारी लहरें उत्ताल॥
भँवर-चक्र में फँसी हुई हो, बीचों बीच अगर जलयान।
छुटकारा पा जाते दुःख से, करने वाले तेरा ध्यान ॥४४॥

असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोदर पीड़ा भार।
जीने की आशा छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार॥
ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद-रज संजीवन।
स्वास्थ्य-लाभ कर बनता उसका, कामदेव सा सुंदर तन ॥४५॥

लोह-श्रंखला से जकड़ी है, नख से शिख तक देह समस्त।
घुटने-जंघे छिले बेड़ियों से अधीर जो हैं अतित्रस्त॥
भगवन ऐसे बंदीजन भी, तेरे नाम-मंत्र की जाप॥
जप कर गत-बंधन हो जाते, क्षण भर में अपने ही आप ॥४६॥

वृषभेश्वर के गुण के स्तवन का, करते निशिदिन जो चिंतन।
भय भी भयाकुलित हो उनसे, भग जाता है हे स्वामिन॥
कुंजर-समर सिंह-शोक-रुज, अहि दानावल कारागर।
इनके अतिभीषण दुःखों का, हो जाता क्षण में संहार ॥४७॥

हे प्रभु! तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य- ललाम।
गूँथी विविध वर्ण सुमनों की, गुण-माला सुंदर अभिराम॥
श्रद्धा सहित भविकजन जो भी कंठाभरण बनाते हैं।
मानतुंग-सम निश्चित सुंदर, मोक्ष-लक्ष्मी पाते हैं ॥४८॥