Saturday, October 29, 2011

मिथ्यातम नाश वे को



मिथ्यातम नाश वे को, ज्ञान के प्रकाश वे को,
आपा पर भास वे को, भानु सी बखानी है॥
छहों द्रव्य जान वे को, बन्ध विधि मान वे को,
स्व-पर पिछान वे को, परम प्रमानी है॥
अनुभव बताए वे को, जीव के जताए वे को,
काहूँ न सताय वे को, भव्य उर आनी है॥
जहाँ तहाँ तार वे को, पार के उतार वे को,
सुख विस्तार वे को यही जिनवाणी है॥
जिनवाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,
सो वाणी मस्तक धरों, सदा देत हूँ धोक॥
है जिनवाणी भारती, तोहि जपूँ दिन चैन,
जो तेरी शरण गहैं, सो पावे सुख-चैन॥

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